Jun 27, 2016

जो मिली वज़ा थी...

जो मिली वज़ा थी...

बस एक चुप सी लगी है...

जो मिली वज़ा थी

जो मिली बहुत मिली है,

बस एक बेनाम सा दर्द गुज़र कर

हर लम्हो को अपने नाम कर जाता,

सुकूत हि रिज़क बनी है

पर इक जिद्द सी मची है

ज़फा न होगी अब खिज़ा, हिज्र की

बस एक चुप सी...
                
                ©पम्मी

Jun 18, 2016

वो बोल...

आहटे नहीं है
उन दमदार कदमों के चाल की,
गुज़रती है जेहन में ..
वो बोल
मैं हूँ न..
तुमलोग घबराते क्यों हो ?’
वो सर की सीकन और जद्दोजहद,
हम खुश रहे..
ये निस्वार्थ भाव कैसे ?
आप पिता थे..
अहसास है अब भी
आपके न होकर भी होने का
गुंजती है..
तुमलोग को क्या चाहिए ?
पश्चताप इस बात
न पुछ सकी
आपको क्या चाहिए..
इल्म भी हुई जाने के बाद,
एनको के पीछे
वो आँखें नहीं
पर दस्तरस है आपकी 
हमारी हर मुफ़रर्त में..
                 ©पम्मी 

                  
                

                

May 17, 2016

प्रयास जारी रहती..

इत्ती  सी  ज़िंदगी ,, इत्ता  सारा  काम. . 
अब  बोलो  कैसे  करु 
हाँ , जी  बस  करना  जरूर  हैं। 
ओ>> जिसे  छुट्टियाँ  कहते हैं  आई थी  चली  भी  गयी...
भाई, हद  हो  गई   
हर  दिन  की  इक  कहानी.. 
सब  की  छुट्टियों  में  अपना  हिस्सा   तलाश  रही  थी। 
(वो  सुबह  कभी  तो आएगी . . )
हर  रिश्तों  को  आती -जाती  सांसो  मे  उतार  कर  सुखद  अहसास  देने 
की  प्रयास  ज़ारी  रहती हैं। 
फिर  भी  कभी  ये  छूटा  तो  कभी  ओ  छूटा . . 
धत ! तेरी  की . परेशानी  की  क़्या  बात ? 
हर  लकीरो  में  मोड़ आ   ही  जाती  हैं। 
सच  हैं .
ठहरे  हुए  पानी  में  घोर  सन्नाटा .  . 

तन्कन्त  तो  इस  बात  की 
मैने  सारी  उम्र  बिना  छुट्टियों   की  बहुत  काम  की 
तभी   एक  आवाज़ 
तूने   किया  क़्या  ?
चार  रोटियाँ   हि  तो  बनाई 
स्थिति  जल  बिन  मछली  की  तरह ...

शायद  इस  लिए  बैठे -बैठे  एक   कंकर   डाल  दी . . परत  दर  परत  लहरों  की  तरह 
मन  मे  विचार  भी  आ  कर  जाती  रही। 
जा  रही  हुँ.. शाम  होने  को आई .. 
खुद  के  हिस्से   की  उम्र को   जी  रही  हूँ 
कल  तो  छुट्टी  होगी  हि.. 
(इत्ती  सी  हसी ,इत्ती  सी  ख़ुशी, इत्ता  सा  आसमान 
हुह .. तो  फिर  इत्ती  सी  परेशानियाँ .  . )


आज बिना लाग  लपेट के सुलभ भाव की प्रस्तुति।  

Apr 30, 2016

रीवाज पाल रखी..

लोगो ने ये कौन सी

ऱीवाज पाल रखी

जहाँ खुद की

पाकीजगी साबित

करने की चाह में

दुसरो को गिराना पडा,

मसाइबो की क्या कमी

खुद की रयाजत और

उसके समर की है आस..

रफाकते भी चंद दिनो की

पर मुजमहिल इस कदर कि

मैं ही मैं हूँ।

न जाने

वो इख्लास की

छवि गई कहाँ

जहाँ अजीजो की

भी थी हदें

खुदी की जरकाऱ

साबित करने की चाह में

लोगो ने ये कौन सी

रीवाज पाल रखी है

इक हकीकत ऐसी

जिससे नजरे भी

बचती और बचाती है...।
                     ©..पम्मी



Mar 31, 2016

फर्ज और कर्ज किसी ओर..

मुड़  कर जाती  ज़ीस्त 
गुज़रते  लम्हों  को 
शाइस्तगी  से ताकीद   की
फ़र्ज़  और क़र्ज़ 
 किसी  ओर  रोज़,
खोने  और  पाने  का 
हिसाब  किसी  ओर  दिन
मुद्द्त्तो  के  बाद  मिली 
पलक्षिण  को  समेट  तो  लू,
शाद  ने  भी 
शाइस्तगी  से ताकीद  की,
हम  न  आएगे  बार - बार.. 
पर  हर इक  की
 हसरते जरूर  हूँ
मसरूफ   हू   पर 
 हर इक  के  नसीब में  हूँ,
मैं  भी  इक  गुज़रती 
ज़ीस्त  का  लम्हा हूँ  .. 
                                   ©पम्मी 
                                                                                   
 शाइस्तगी -सभ्य ,नम्र decent
शाद -ख़ुशी happiness


Mar 22, 2016

Noor e rang...

नूर-ए-रंग है फाग की

हमें खिलने के लिए,

चंद रस्म नहीं सिर्फ

निभाने के लिए,

निखर कर निखार दे

पूर्ण चांद निकला है

ये बताने के लिए..
-    ©पम्मी      

              

Mar 7, 2016

ये मेआर...

ये मेआर...

बेटियो से
मधु मिश्रित ध्वनि से पुछा

कहाँ से लाती हो, 
ये मेआर
नाशातो की सहर            
हुनरमंद तह.जीब,और तांजीम
सदाकत,शिद्दतो की मेआर,
जी..
मैने हँस कर कहाँ
मेरी माँ ने संवारा..
उसी ने बनाया है
स्वयं को कस कर
हर पलक्षिण में

इक नई कलेवर के लिए

शनैः शनैः पोशाक बदल कर

औरो को नहीं
बस..
खुदी को सवांरा...
इल्म इस बात की
कमर्जफ हम नहीं

हमी से जमाना है...
                © पम्मी 

अनकहे का रिवाज..

 जिंदगी किताब है सो पढते ही जा रहे  पन्नों के हिसाब में गुना भाग किए जा रहे, मुमकिन नहीं इससे मुड़ना सो दो चार होकर अनकहे का रिवाज है पर कहे...