Mar 24, 2017

इक मुखौटा



सोचती हूँ खूबसूरत कहूँ या कुछ और

हर शख्स मिला

चेहरे पर चेहरा लगाए.
.
पर वो इंसान का चेहरा नहीं मिला

हर हँसी के पीछे

एक और हँसी

रही कसर हुई पूरी...

जब बेहरुपिए से इक मुखौटा मांग कर,

गिरती हूँ बस

इन शतरंजी चाल से

शउर नहीं कि खुद को समझाउँ

शायद इतनी समझदार भी नहीं..
                                               पम्मी


Mar 7, 2017

महिला दिवस

यह एकदिन की इज़्ज़त कुछ अच्छी नहीं लगती

 बात समानता की हो तो बात कुछ और होती

प्रतीक्षा उस दिन की,जब अंतराष्ट्रीय

'समानता दिवस' का आगाज़ हो...
                                          पम्मी 

Feb 24, 2017

बस यहीं हूँ..



हूँ ..

बस  यहीं  हूँ..


कहीं  और  नहीं  जरा  भंवर  में  पड़ी  हूँ...


दरपेश  है आसपास  की  गुज़रती   मसाइलो  से


गाहे  गाहे  घटती  मंजरो  को  देख,


खुद  के  लफ्ज़ों  से  हमारी  ही  बगावत  चलती  है


गो  तख़य्युल  के  साथ-साथ  लफ़्जों  की  पासबानी  होती  है,  


कुछ  खास  तो  करती  नहीं.. .पर


खुद  बयानी  सादा-हर्फी  पर  हमारी  ही  दहशत  चलती  है,


क्या  करु...


खिलाफ़त  जब  आंधियाँ  करती  है  तो  जुरअत  और    बढती  है। 

                                                                                             ©पम्मी सिंह  

(दरपेश -सामने,   मसाइलो -मुसिबत,  तख़य्युल -विचारो, ,पासबानी-पहरेदारी,जुरअत-हौसला )




                                                                                                       

                                

Feb 4, 2017

संयोग..



कुछ शक्तियाँ विशाल व्यापक और विराट् है

जिसमें हम खुद को सर्वथा निस्सहाय पाते हैं
हाँ...वो 'संयोग ' ही है

जो हमारे वश से बाहर होती है
बादलों के चाँद,सितारें, राशियाँ और वो एक समय

न जाने ब्रह्मांड में छुपी तमाम शक्तियाँ..
मिलकर इक नयी चाल चलती .. जहाँ हम

चाह कर भी कुछ न कर सकने की अवस्था में पाते हैं तब..

.कुछ टूटे सितारों की आस में
हर रात छत से गुज़र जाती हूँ

आधे -अधूरे बेतरतीब इखरे-बिखरे
पलों,संयोग को समेटते हुए न जाने

कई संयोग वियोग में बदल ..
रह जाती है बस वही इक ...कसक

जी हाँ .. ये कसक

अजीब सी कशाकश की अवस्था
जब्त हो जाती है..
फिक्र पर भी बादल मडराते है,

कुछ सुनना था,जानना था या ...
.बस जरा समझना था
पर...

देखों यहाँ भी संयोग और समय ने अपनी
महत्ता बता दी...

हर जानी पहचानी शक्ल अचानक अज़नबी बन जाती है..

वाकिफ हूँ इस बात से

कुछ शक्तियाँ विशाल व्यापक और विराट् होती है..
                                                                             ©पम्मी सिंह'तृप्ति'      
                                                                           



Jan 18, 2017

क्या से आगे क्या ?

क्या से आगे क्या ?


क्या से आगे क्या ?

आक्षेप, पराक्षेप से भी क्या ?

विशाल, व्यापक और विराट है क्या

सर्वथा निस्सहाय नहीं है ये क्या

उपायो में है जबाब हर क्या का
,
छोड़ो भी..

प्रश्न के बदले प्रश्न को

लम्हो की खता वर्षो में गुज़र जाएगी..

पत्थरो को तराश कर ही बनती है,

जिन्दगी के क्या का जबाब.
         

Dec 28, 2016

आनेवाली मुस्कराहटों .....

लो गई..
उतार चढ़ाव से भरी
ये साल भी गई...
गुजरता पल,कुछ बची हुई उम्मीदे
आनेवाली मुस्कराहटों का सबब होगा,
इस पिंदार के साथ हम बढ़ चले।

जरा ठहरो..देखो
इन दरीचों से आती शुआएं...
जिनमें असिर ..
इन गुजरते लम्हों की कसक, कुछ ठहराव और अलविदा कहने का...,
पयाम...नव उम्मीद के झलक
कुसुम के महक का,

जी शाकिर हूँ ..
कुछ  चापों की आहटों से
न न न न इन रूनझून खनक से...,

हाँ..
कुछ गलतियों को कील पर टांग आई..,

बस जरा सा..
हँसते हुए ख्वाबों ने कान के पास आकर हौले से बोला..
क्या जाने कल क्या हो?
कोमल मन के ख्याल अच्छी  ही होनी चाहिए..।
                                                                  ©  पम्मी सिंह  
                                                     
        (पिंदार-self thought,शाकिर- oblige )                                           





Dec 12, 2016

बड़ा अजीब सफर...

                                                                                                                                                             




 बड़ा अजीब सफर है आजकल मेरे तख़य्युल का

कुछ घटित घटनाएँ ..शायद सुनियोजित तो नहीं

पर वहाँ संयोग जरूर विराजमान थी।

टकराती हूँ  चंद लोगो से जो अनभिज्ञ है कि

लफ्ज़ो की भी आबरु होती है..

बोलते पहले हैं सोचते बाद में।

जिसे दीवारो को खुरच कर सफाई करने की बातें कहते,

शब्दों ,बोल और व्यवहार में मुज़्महिल(व्याकुल) इस कदर
मानो सैलाब आ गया ..


शाब्दिक आलाप कुछ और  पर मुनासिब अर्थ बता गए.

विरोधाभास यह कि सुने और समझे वही तक जहाँ तक उनकी सोच की सीढी जाती है..

 वाकिफ़ हूँ  चंद समसमायिक विषयों, व्यक्तिव के पहलूओं और जहाँ की रस्मों से

वरना छिटकी चाँदनी को ही वज़ा करती..।


अनकहे का रिवाज..

 जिंदगी किताब है सो पढते ही जा रहे  पन्नों के हिसाब में गुना भाग किए जा रहे, मुमकिन नहीं इससे मुड़ना सो दो चार होकर अनकहे का रिवाज है पर कहे...